Saturday, February 29, 2020

सम्बलपुर का क्रांतिवीर सुरेन्द्र साय

28 फरवरी/बलिदान-दिवस

भारत में जब से ब्रिटिश लोगों ने आकर अपनी सत्ता स्थापित की, तब से ही उनका विरोध हर प्रान्त में होने लगा था। 1857 में यह संगठित रूप से प्रकट हुआ; पर इससे पूर्व अनेक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किये रखा। वीर सुरेन्द्र साय ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे।

सुरेन्द्र साय का जन्म ग्राम खिण्डा (सम्बलपुर, उड़ीसा) के चौहान राजवंश में 23 जनवरी, 1809 को हुआ था। इनका गाँव सम्बलपुर से 30 कि.मी की दूरी पर था। युवावस्था में उनका विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ, जो उस समय गंगापुर राज्य के प्रमुख थे। आगे चलकर सुरेन्द्र के घर में एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री ने जन्म लिया। 

1827 में सम्बलपुर के राजा का निःसन्तान अवस्था में देहान्त हो गया। राजवंश का होने के कारण राजगद्दी पर अब सुरेन्द्र साय का हक था; पर अंग्रेज जानते थे कि सुरेन्द्र उनका हस्तक बन कर नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने राजा की पत्नी मोहन कुमारी को ही राज्य का प्रशासक बना दिया। मोहन कुमारी बहुत सरल महिला थीं। उन्हें राजकाज की कुछ जानकारी नहीं थी। अतः अंग्रेज उन्हें कठपुतली की तरह अपनी उँगलियों पर नचाने लगे। 

लेकिन अंग्रेजों की इस धूर्तता से उस राज्य के सब जमींदार नाराज हो गये। उन्होंने मिलकर इसका सशस्त्र विरोध करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने सुरेन्द्र साय को नेता बनाया। धीरे-धीरे इनके संघर्ष एवं प्रतिरोध की गति बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गये। 

1837 में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय, बलराम सिंह तथा लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव मिलकर डेब्रीगढ़ में कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे कि अंग्रेजों ने वहाँ अचानक धावा बोल दिया। उन्होंने बलभद्र देव की वहीं निर्ममता से हत्या कर दी; पर शेष तीनों लोग बचने में सफल हो गये।

इस हमले के बाद भी इनकी गतिविधियाँ चलती रहीं। अंग्रेज भी इनके पीछे लगे रहे। उन्होंने कुछ जासूस भी इनको पकड़ने के लिए लगा रखे थे। ऐसे ही देशद्रोहियों की सूचना पर 1840 में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय तथा बलराम सिंह अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये। तीनों को आजन्म कारावास का दण्ड देकर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। ये तीनों परस्पर रिश्तेदार भी थे।

पर इनके साथी शान्त नहीं बैठे। 30 जुलाई, 1857 को सैकड़ों क्रान्तिवीरों ने हजारीबाग जेल पर धावा बोला और सुरेन्द्र साय को 32 साथियों सहित छुड़ा कर ले गये। सुरेन्द्र साय ने सम्बलपुर पहुँचकर फिर से अपने राज्य को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। 

अंग्रेज पुलिस और सुरेन्द्र साय के सैनिकों में परस्पर झड़प होती ही रहती थी। कभी एक का पलड़ा भारी रहता, तो कभी दूसरे का; पर सुरेन्द्र साय और उनके साथियों ने अंग्रेजों को चैन की नींद नहीं सोने दिया।

23 जनवरी, 1864 को जब सुरेन्द्र साय अपने परिवार के साथ सो रहे थे, तब अंग्रेज पुलिस ने छापा मारकर उन्हें पकड़ लिया। रात में ही उन्हें सपरिवार रायपुर ले जाया गया और फिर अगले दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया। जेल में भरपूर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेन्द्र ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया।

अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले उस वीर ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम साँस ली।

#हरदिनपावन

क्रान्तिवीर गोपीमोहन साहा

1 मार्च/बलिदान-दिवस

पुलिस अधिकारी टेगार्ट ने अपनी रणनीति से बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन को भारी नुकसान पहुँचाया। प्रमुख क्रान्तिकारी या तो फाँसी पर चढ़ा दिये गये थे या जेलों में सड़ रहे थे। उनमें से कई को तो कालेपानी भेज दिया गया था। ऐसे समय में भी बंगाल की वीरभूमि पर गोपीमोहन साहा नामक एक क्रान्तिवीर का जन्म हुआ, जिसने टेगार्ट से बदला लेने का प्रयास किया। यद्यपि दुर्भाग्यवश उसका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।

टेगार्ट को यमलोक भेजने का निश्चय करते ही गोपीमोहन ने निशाना लगाने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। वह चाहता था कि उसकी एक गोली में ही उसका काम तमाम हो जाये। उसने टेगार्ट को कई बार देखा, जिससे मारते समय किसी प्रकार का भ्रम न हो। अब वह मौके की तलाश में रहने लगा।

दो जनवरी, 1924 को प्रातः सात बजे का समय था। सर्दी के कारण कोलकाता में भीषण कोहरा था। दूर से किसी को पहचानना कठिन था। ऐसे में भी गोपीमोहन अपनी धुन में टेगार्ट की तलाश में घूम रहा था। चैरंगी रोड और पार्क स्ट्रीट के चैराहे के पास उसने बिल्कुल टेगार्ट जैसा एक आदमी देखा। उसे लगा कि इतने समय से वह जिस संकल्प को मन में सँजोये है, उसके पूरा होने का समय आ गया है। उसने आव देखा न ताव, उस आदमी पर गोली चला दी; पर यह गोली चूक गयी। वह व्यक्ति मुड़कर गोपीमोहन की ओर झपटा। यह देखकर गोपी ने दूसरी गोली चलायी। यह गोली उस आदमी के सिर पर लगी। 

वह वहीं धराशायी हो गया। गोपी ने सावधानीवश तीन गोली और चलायी और वहाँ फिर से भाग निकला। उसने एक टैक्सी को हाथ दिया; पर टैक्सी वाला रुका नहीं। यह देखकर गोपीमोहन ने उस पर भी गोली चला दी। गोलियों की आवाज और एक अंगे्रज को सड़क पर मरा देखकर भीड़ ने गोपीमोहन का पीछा करना शुरू कर दिया। गोपी ने फिर गोलियाँ चलायीं, इससे तीन लोग घायल हो गये; लेकिन अन्ततः वह पकड़ा गया। 

पकड़े जाने पर उसे पता लगा कि उसने जिस अंग्रेज को मारा है, वह टेगार्ट नहीं अपितु उसकी शक्ल से मिलता हुआ एक व्यापारिक कम्पनी का प्रतिनिधि है। इससे गोपी को बहुत दुख हुआ कि उसके हाथ से एक निरपराध की हत्या हो गयी; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।

न्यायालय में अपना बयान देते समय उसने टेगार्ट को व्यंग्य से कहा कि आप स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं; पर यह न भूलें कि जो काम मैं नहीं कर सका, उसे मेरा कोई भाई शीघ्र ही पूरा करेगा। उस पर अनेक आपराधिक धाराएँ थोपीं गयीं। इस पर उसने न्यायाधीश से कहा कि कंजूसी क्यों करते हैं, दो-चार धाराएँ और लगा दीजिये। 

16 फरवरी, 1924 को उसे फाँसी की सजा सुना दी गयी। सजा सुनकर उसने गर्व से कहा, ‘‘मेरी कामना है कि मेरे रक्त की प्रत्येक बूँद भारत के हर घर में आजादी के बीज बोये। जब तक जलियाँवाला बाग और चाँदपुर जैसे काण्ड होंगे, तब तक हमारा संघर्ष भी चलता रहेगा। एक दिन ब्रिटिश शासन को अपने किये का फल अवश्य मिलेगा।’’

एक मार्च, 1924 भारत माँ के अमर सपूत गोपीमोहन साहा ने फाँसी के फन्दे को चूम लिया। मृत्यु का कोई भय न होने के कारण उस समय तक उसका वजन दो किलो बढ़ चुका था। फाँसी के बाद उसके शव को लेने के लिए गोपी के भाई के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी जेल गये थे।

#हरदिनपावन

Wednesday, February 26, 2020

चंद्रशेखर आजाद, जो सदा आजाद रहे*

27 फरवरी/बलिदान-दिवस         
*चंद्रशेखर आजाद, जो सदा आजाद रहे*

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों में चन्द्रशेखर आजाद का नाम सदा अग्रणी रहेगा। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को ग्राम माबरा (झाबुआ, मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पूर्वज गाँव बदरका (जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे; पर अकाल के कारण इनके पिता श्री सीताराम तिवारी माबरा में आकर बस गये थे। 

बचपन से ही चन्द्रशेखर का मन अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सुलगता रहता था। किशोरावस्था में वे भागकर अपनी बुआ के पास बनारस आ गये और संस्कृत विद्यापीठ में पढ़ने लगे। 

बनारस में ही वे पहली बार विदेशी सामान बेचने वाली एक दुकान के सामने धरना देते हुए पकड़े गये। थाने में हुई पूछताछ में उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतन्त्रता और घर का पता जेलखाना बताया। इस पर बौखलाकर थानेदार ने इन्हें 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत पर ये ‘भारत माता की जय’ बोलते थे। तब से ही इनका नाम 'आजाद' प्रचलित हो गया।

आगे चलकर आजाद ने सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से देश को आजाद कराने वाले युवकों का एक दल बना लिया। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल, अशफाक, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जयदेव आदि उनके सहयोगी थे। 

आजाद तथा उनके सहयोगियों ने नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ से सहारनपुर जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन के पास रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। यह अंग्रेज शासन को खुली चुनौती थी, अतः सरकार ने क्रान्तिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत झोंक दी।

पर आजाद को पकड़ना इतना आसान नहीं था। वे वेष बदलकर क्रान्तिकारियों के संगठन में लगे रहे। ग्वालियर में रहकर इन्होंने गाड़ी चलाना और उसकी मरम्मत करना भी सीखा। 

17 दिसम्बर, 1928 को इनकी प्रेरणा से ही भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक कार्यालय के ठीक सामने सांडर्स को यमलोक पहुँचा दिया। अब तो पुलिस बौखला गयी; पर क्रान्तिवीर अपने काम में लगे रहे।

कुछ समय बाद क्रान्तिकारियों ने लाहौर विधानभवन में बम फेंका। यद्यपि उसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था। बम फेंककर भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके वीरतापूर्ण वक्तव्यों सेे जनता में क्रान्तिकारियों के प्रति फैलाये जा रहे भ्रम दूर हुए। दूसरी ओर अनेक क्रान्तिकारी पकड़े भी गये। उनमें से कुछ पुलिस के अत्याचार न सह पाये और मुखबिरी कर बैठे। इससे क्रान्तिकारी आन्दोलन कमजोर पड़ गया। 

वह 27 फरवरी, 1931 का दिन था। पुलिस को किसी मुखबिर से समाचार मिला कि आज प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद किसी से मिलने वाले हैं। पुलिस नेे समय गँवाये बिना पार्क को घेर लिया। आजाद एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उनकी निगाह पुलिस पर पड़ी, वे पिस्तौल निकालकर पेड़ के पीछे छिप गये। 

कुछ ही देर में दोनों ओर से गोली चलनेे लगी। इधर चन्द्रशेखर आजाद अकेले थे और उधर कई जवान। जब आजाद की पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तो उन्होंने देश की मिट्टी अपने माथे से लगायी और उस अन्तिम गोली को अपनी कनपटी में मार लिया। उनका संकल्प था कि वे आजाद ही जन्मे हैं और मरते दम तक आजाद ही रहेंगे। उन्होंने इस प्रकार अपना संकल्प निभाया और जीते जी पुलिस के हाथ नहीं आये।

#हरदिनपावन

Tuesday, February 25, 2020

हिन्दी और हिन्दुत्व प्रेमी वीर सावरकर

26 फरवरी/पुण्य-तिथि               

*हिन्दी और हिन्दुत्व प्रेमी वीर सावरकर*




वीर विनायक दामोदर सावरकर दो आजन्म कारावास की सजा पाकर कालेपानी नामक कुख्यात अन्दमान की सेल्युलर जेल में बन्द थे। वहाँ पूरे भारत से तरह-तरह के अपराधों में सजा पाकर आये बन्दी भी थे। सावरकर उनमें सर्वाधिक शिक्षित थे। वे कोल्हू पेरना, नारियल की रस्सी बँटना जैसे सभी कठोर कार्य करते थे। इसके बाद भी उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं।


भारत की एकात्मता के लिए हिन्दी की उपयोगिता समझकर उन्होंने खाली समय में बन्दियों को हिन्दी पढ़ाना प्रारम्भ किया। उन्होंने अधिकांश बन्दियों को एक ईश्वर, एक आत्मा, एक देश तथा एक सम्पर्क भाषा के लिए सहमत कर लिया। उनके प्रयास से अधिकांश बन्दियों ने प्राथमिक हिन्दी सीख ली और वे छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने लगे। 


अब सावरकर जी ने उन्हें रामायण, महाभारत, गीता जैसे बड़े धर्मग्रन्थ पढ़ने को प्रेरित किया। उनके प्रयत्नों से जेल में एक छोटा पुस्तकालय भी स्थापित हो गया। इसके लिए बन्दियों ने ही अपनी जेब से पैसा देकर ‘पुस्तक कोष’ बनाया था।


जेल में बन्दियों द्वारा निकाले गये तेल, उसकी खली-बिनौले तथा नारियल की रस्सी आदि की बिक्री की जाती थी। इसके लिए जेल में एक विक्रय भण्डार बना था। जब सावरकर जी को जेल में रहते काफी समय हो गया, तो उनके अनुभव, शिक्षा और व्यवहार कुशलता को देखकर उन्हें इस भण्डार का प्रमुख बना दिया गया। इससे उनका सम्पर्क अन्दमान के व्यापारियों और सामान खरीदने के लिए आने वाले उनके नौकरों से होने लगा।


वीर सावरकर ने उन सबको भी हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी। वे उन्हें पुस्तकालय की हिन्दी पुस्तकें और उनके सरल अनुवाद भी देने लगे। इस प्रकार बन्दियों के साथ-साथ जेल कर्मचारी, स्थानीय व्यापारी तथा उनके परिजन हिन्दी सीख गये। अतः सब ओर हिन्दी का व्यापक प्रचलन हो गया। 


सावरकर जी के छूटने के बाद भी यह क्रम चलता रहा। यही कारण है कि आज भी केन्द्र शासित अन्दमान-निकोबार द्वीपसमूह में हिन्दी बोलने वाले सर्वाधिक हैं और वहाँ की अधिकृत राजभाषा भी हिन्दी ही है।


अन्दमान में हिन्दू बन्दियों की देखरेख के लिए अंग्रेज अधिकारियों की शह पर तीन मुसलमान पहरेदार रखे गये थे। वे हिन्दुओं को अनेक तरह से परेशान करते थे। गालियाँ देना, डण्डे मारना तथा देवी-देवताओं को अपमानित करना सामान्य बात थी। 


वे उनके भोजन को छू लेते थे। इस पर अनेक हिन्दू उसे अपवित्र मानकर नहीं खाते थे। उन्हें भूखा देखकर वे मुस्लिम पहरेदार बहुत खुश होते थे। सावरकर जी ने हिन्दू कैदियों को समझाया कि राम-नाम में सब अपवित्रताओं को समाप्त करने की शक्ति है। इससे हिन्दू बन्दी श्रीराम का नाम लेकर भोजन करने लगे; पर इससे मुसलमान पहरेदार चिढ़ गये। 


एक बार एक पहरेदार ने हिन्दू बन्दी को कहा - काफिर, तेरी चोटी उखाड़ लूँगा। हिन्दू बन्दियों का आत्मविश्वास इतना बढ़ चुका था कि वह यह सुनकर पहरेदार की छाती पर चढ़ गया और दोनों हाथों से उसे इतने मुक्के मारे कि पहरेदार बेहोश हो गया। 


इस घटना से भयभीत होकर उन पहरेदारों ने हिन्दू बन्दियों से छेड़छाड़ बन्द कर दी। कारागार में मुसलमान पहरेदार हिन्दू बन्दियों को परेशानकर मुसलमान बना लेते थे। सावरकर जी ने ऐसे सब धर्मान्तरितों  को शुद्ध कर फिर से हिन्दू बनाया।


हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रबल समर्थक वीर विनायक दामोदर सावरकर का देहावसान 26 फरवरी, 1966 को हुआ था।


#हरदिनपावन

Monday, February 24, 2020

25 फरवरी/पुण्य-तिथिकाले कपड़ों वाले जनरल केदारनाथ सहगल



भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में लाला केदारनाथ सहगल काले कपड़ों वाले जनरल के नाम से जाने जाते थे। 1896 में इनका जन्म लाहौर के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। माता-पिता ने इन्हें एक अच्छे और महँगे विद्यालय में यह सोचकर भर्ती कराया कि इससे इनका भविष्य उज्जवल बनेगा; पर वहाँ के प्रधानाचार्य स्वयं क्रान्तिकारी थे, अतः इनके मन में बचपन से ही देशसेवा की भावना घर कर गयी। 


उस समय पंजाब में सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद ‘भारतमाता संस्था’ के माध्यम से गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजों को भूमिकर न देने का अभियान चला रहे थे। 1907 में 11 वर्ष की अवस्था में ही केदारनाथ जी भी उसमें शामिल हो गये। 1911 में सशस्त्र कानून के अन्तर्गत इन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया। जेल जाने से इनकी इनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी; पर इन्होंने कुछ चिन्ता नहीं की।


1914 में इन्हें लाहौर में हुए एक काण्ड में अपराधी ठहराकर फिर गिरफ्तार किया गया। तीन साल तक चले मुकदमे के बाद इन्हें साढ़े चार साल की सजा देकर मुल्तान जेल भेज दिया गया। वहाँ से आते ही ये गांधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। 


उस समय ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लाहौर कमेटी के महामन्त्री थे। 1920 में इन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं होगा, तब तक वे काले कपड़े ही पहनेंगे। तब से ही लोग इन्हें ‘काले कपड़ों वाला जनरल’ कहने लगे।


1921 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तो उसके विरोध में पंजाब में भारी आन्दोलन हुआ। लाहौर में हुए विरोध कार्यक्रम में इन्होंने अपने साथियों सहित साइमन को काले झण्डे दिखाये। पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला लाजपतराय बहुत घायल हुए। वह चोट उनके लिए घातक सिद्ध हुई और वे चल बसे। आगे चलकर भगतसिंह और उनके साथियों ने इसका बदला सांडर्स को मौत की नींद सुलाकर लिया।


सांडर्स काण्ड में केदारनाथ जी को भी तीन साल की सजा हुई। इसके अतिरिक्त मेरठ षड्यन्त्र काण्ड में भी इन्हें पाँच साल सीखचों के पीछे रहना पड़ा। प्रयाग उच्च न्यायालय में अपील के बाद 1933 में ये रिहा हुए। 


अपनी आवाज सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए इन्होंने ‘खबरदार’ तथा ‘उर्दू अखबार’ नामक दो समाचार पत्र प्रारम्भ किये। लाला लाजपतराय के अखबार ‘वन्देमातरम्’ के प्रकाशक भी यही थे। इन पत्रों में शासन की खूब खिंचाई की जाती थी। आन्दोलन के समाचारों के लिए लोग इनकी प्रतीक्षा करते थे। 


शासन को ये अखबार फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। अतः उसने इन्हें बन्द करा दिया। केदारनाथ जी ने अपने पूर्वजों की सारी सम्पत्ति बेचकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में लगा दी। उन्होंने अपने जीवन के कुल 26 साल अंग्रेजों की जेलों में बिताये। वहाँ इन्हें अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक प्रतारणाएँ झेलनी पड़ीं; पर इन्होंने झुकना या पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।


स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी केदारनाथ जी ने इस देशसेवा के बदले में कुछ नहीं चाहा। 25 फरवरी, 1968 को हृदयगति रुक जाने से इनका देहान्त हो गया। काले कपड़ों वाले जनरल के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए इनके साथियों ने इनके कफन में भी काले कपड़ों का ही प्रयोग किया।


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Sunday, February 23, 2020

24 फरवरी/बलिदान-दिवस*लोकदेवता कल्ला जी राठौड़*

राजस्थान में अनेक वीरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया, जिससे उनकी छवि लोकदेवता जैसी बन गयी। कल्ला जी राठौड़ ऐसे ही एक महामानव थे। उनका जन्म मेड़ता राजपरिवार में आश्विन शुक्ल 8, विक्रम संवत 1601 को हुआ था।

इनके पिता मेड़ता के राव जयमल के छोटे भाई आसासिंह थे। भक्तिमती मीराबाई इनकी बुआ थीं। कल्ला जी की रुचि बचपन से सामान्य शिक्षा के साथ ही योगाभ्यास, औषध विज्ञान तथा शस्त्र संचालन में भी थी। प्रसिद्ध योगी भैरवनाथ से इन्होंने योग की शिक्षा पायी।

इसी समय मुगल आक्रमणकारी अकबर ने मेड़ता पर हमला किया। राव जयमल के नेतृत्व में आसासिंह तथा कल्ला जी ने अकबर का डटकर मुकाबला किया; पर सफलता न मिलते देख राव जयमल अपने परिवार सहित घेरेबन्दी से निकल कर चित्तौड़ पहुँच गये। राणा उदयसिंह ने उनका स्वागत कर उन्हें बदनौर की जागीर प्रदान की। कल्ला जी को रणढालपुर की जागीर देकर गुजरात की सीमा से लगे क्षेत्र का रक्षक नियुक्त किया।

कुछ समय बाद कल्ला जी का विवाह शिवगढ़ के राव कृष्णदास की पुत्री कृष्णा से तय हुआ। द्वाराचार के समय जब उनकी सास आरती उतार रही थी, तभी राणा उदयसिंह का सन्देश मिला कि अकबर ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है, अतः तुरन्त सेना सहित वहाँ पहुँचें। कल्ला जी ने विवाह की औपचारिकता पूरी की तथा पत्नी से शीघ्र लौटने को कहकर चित्तौड़ कूच कर दिया।

महाराणा ने जयमल को सेनापति नियुक्त किया था। अकबर की सेना ने चित्तौड़ को चारों ओर से घेर लिया था। मेवाड़ी वीर किले से निकलकर हमला करते और शत्रुओं को हानि पहुँचाकर फिर किले में आ जाते। कई दिनों के संघर्ष के बाद जब क्षत्रिय वीरों की संख्या बहुत कम रह गयी, तो सेनापति जयमल ने निश्चय किया कि अब अन्तिम संघर्ष का समय आ गया है। उन्होंने सभी सैनिकों को केसरिया बाना पहनने का निर्देश दिया।

इस सन्देश का अर्थ स्पष्ट था। 23 फरवरी, 1568 की रात में चित्तौड़ के किले में उपस्थित सभी क्षत्राणियों ने जौहर किया और अगले दिन 24 फरवरी को मेवाड़ी वीर किले के द्वार खोल कर भूखे सिंह की भाँति मुगल सेना पर टूट पड़े। भीषण युद्ध होने लगा। 

राठौड़ जयमल के पाँव में गोली लगी। उनकी युद्ध करने की तीव्र इच्छा थी; पर उनसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। कल्ला जी ने यह देखकर जयमल के दोनों हाथों में तलवार देकर उन्हें अपने कन्धे पर  बैठा लिया। इसके बाद कल्ला जी ने अपने दोनों हाथों में भी तलवारें ले लीं।

चारों तलवारें बिजली की गति से चलने लगीं। मुगल लाशों से धरती पट गयी। अकबर ने यह देखा, तो उसे लगा कि दो सिर और चार हाथ वाला कोई देवता युद्ध कर रहा है। युद्ध में वे दोनों बुरी तरह घायल हो गये। कल्ला जी ने जयमल को नीचे उतारकर उनकी चिकित्सा करनी चाही; पर इसी समय एक शत्रु सैनिक ने पीछे से हमला कर उनका सिर काट दिया। सिर कटने के बाद के बाद भी उनका धड़ बहुत देर तक युद्ध करता रहा। 

इस युद्ध के बाद कल्ला जी का दो सिर और चार हाथ वाला रूप जन-जन में लोकप्रिय हो गया। आज भी लोकदेवता के रूप में चित्तौड़गढ़ में भैंरोपाल पर उनकी छतरी बनी है।

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Saturday, February 22, 2020

23 फरवरी/जन्म-दिवस*साहित्यकार सांसद डा. रघुवीर सिंह*



ऐसा प्रायः कम ही होता है कि राजपरिवार में जन्मे व्यक्ति को सत्तामद न हो; पर 23 फरवरी, 1908 को सीतामऊ (मध्य प्रदेश) रियासत के महाराजा श्री रामसिंह के घर में जन्मे महाराज कुमार रघुवीर सिंह इसके अपवाद थे। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर होने के बाद ये इन्दौर के डेली कॉलेज और होल्कर कॉलेज में पढ़े। इतिहास इनकी सर्वाधिक रुचि का विषय था। 1936 में आगरा विश्वविद्यालय से ‘ट्रांजिट इन मालवा’ विषय पर इन्हें डी.लिट की उपाधि दी गयी। इस विश्वविद्यालय से यह उपाधि लेने वाले वे पहले छात्र थे।

कुँवर रघुवीर सिंह को घर में साहित्यिक वातावरण मिला। उनके पूर्वज महाराज कुमार रतनसिंह ‘नटनागर’ डिंगल के कवि थे। पिता रामसिंह भी सुकवि तथा आधुनिक विचारों के थे। देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन हो रहे थे। 1917 में रूसी क्रान्ति की चर्चा विश्व भर में फैली। घर में भी श्री रामसिंह इसका विश्लेषण सबके सामने ठीक प्रकार से करते थे। इस प्रकार बालक रघुवीर सिंह का राजनीतिक प्रशिक्षण भी पढ़ाई के साथ-साथ चलता रहा।

जब तक रघुवीर सिंह युवा हुए, मालवा क्षेत्र में स्वतन्त्रता संग्राम की गतिविधियाँ तेज हो गयीं। इन्दौर इनका केन्द्र था। वहाँ कांग्रेस के आन्दोलन के साथ ही मजदूर आन्दोलन, प्रजामण्डल आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन भी चल रहे थे। इन सबका प्रभाव युवक रघुवीर सिंह पर भी पड़ा। 1929-30 में उनके लिखे निबन्ध और कविताओं पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। 1933 में यह सब रचनाएँ ‘बिखरे फूल’ में प्रकाशित हुईं।

रघुवीर सिंह जहाँ एक ओर गांधीवादी आन्दोलन से जुड़े थे, तो दूसरी ओर क्रान्तिकारियों द्वारा जान हथेली पर लेकर घूमना भी उनके अन्तर्मन को झकझोर देता था। 1928 में प्रकाशित और बहुचर्चित ‘चाँद’ पत्रिका के फाँसी अंक में उन्होंने ‘फ्रान्स की क्रान्ति के कुछ रक्तरंजित पृष्ठ’ लेख लिखा था। इस अंक को ब्रिटिश शासन ने जब्त कर लिया था। 

तत्कालीन लेखक प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद एवं सुमित्रानन्दन पन्त से भी वे बहुत प्रभावित थे। इनके प्रभाव की छाप उनके विचारों और लेखन में दिखायी देती है। उनका लेखकीय स्वरूप पूर्णतः उनकी सामन्ती छवि से भिन्न है। स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री नेहरु जी से उनकी मित्रता थी। उनके आग्रह पर 1952 से 1962 तक डा. रघुवीर सिंह राज्यसभा में सांसद रहे। सदन में भी वे अत्यधिक सक्रिय रहे। संयुक्त राष्ट्र संघ के 11वें अधिवेशन में उन्होंने भारत का पक्ष बहुत मजबूती से रखा। तभी उन्हें कोलम्बिया विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने भी भाषण के लिए आमन्त्रित किया।

डा. रघुवीर सिंह की एक विशेषता यह थी कि वे उन्हें मिलने वाले हर पत्र का उत्तर देते थे। अपनी जन्मभूमि मालवा से उन्हें अत्यधिक प्रेम था। मालवा के गौरवशाली इतिहास को प्रकाश में लाने का उन्होंने सफल प्रयास किया। उनका साहित्य यद्यपि हिन्दी में है; पर अपने क्षेत्र के लोगों से वे स्थानीय बोली में ही बात करते थे। 1975 में जब आपातकाल की घोषणा कर इंदिरा गांधी ने देश में तानाशाही थोप दी, तो डा0 रघुवीर सिंह ने इसे देश की जनता के लोकतान्त्रिक हितों पर कुठाराघात बताते हुए कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।

सादे जीवन और उच्च विचारों वाले डा. रघुवीर सिंह को प्रख्यात साहित्यकार डा0 वृन्दावनलाल वर्मा ने सीतामऊ का तपस्वी, यशस्वी और प्रतिभा सम्पन्न समर्पित साहित्यकार कहा है।

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22 फरवरी/जन्मदिवस*यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त*

यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त का जन्म २२ फ़रवरी को चटगांव (अब बांग्लादेश में) के विख्यात सेनगुप्ता परिवार में हुआ था वे भारत एक महान क्रान्तिकारी थे | जिन्होने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष किया। ब्रितानी पुलिस ने उन्हें अनेकों बार गिरफ्तार किया।

 उन्होंने 1909 ई. में इंग्लैंड से अपनी बैरिस्टरी पूर्ण की थी। उन्होंने अपना जीवन एक वकील के रूप में कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की और साथ ही मज़दूरों के हित के लिए सदैव कार्य करते रहे। इन्होंने एक अंग्रेज़ युवती नेली सेनगुप्त से विवाह किया था | जिसने देश को स्वाधीन कराने कि लिए अपने पति के समान ही जेल की सजाएँ भोगीं। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त को पाँच बार कोलकाता का मेयर चुना गया था। किन्तु बाद में वे इसे त्यागकर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। 

वे मज़दूर हित समर्थक थे तथा असम-बंगाल रेलवे की हड़ताल का संयोजन किया। 1921 में सिलहट में चाय बाग़ानों के मज़दूरों के शोषण के विरुद्ध यतीन्द्र मोहन के प्रयत्न से बाग़ानों के साथ-साथ रेलवे और जहाज़ों में भी हड़ताल हो गई थी। इस पर उन्हें गिररफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। स्वराज पार्टी बनने पर यतीन्द्र उसकी ओर से बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए। 1925 में उन्होंने कोलकाता के मेयर का पद सम्भाला। अपने जनहित के कार्यों से वे इतने लोकप्रिय बन गये थे कि उन्हें पांच बार कोलकाता का मेयर चुना गया। पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए 1928 के कोलकाता अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त ही थे। 

रंगून (अब यांगून) में उन्होंने बर्मा (अब म्यांमार) को भारत से अलग करने के सरकारी प्रस्ताव के विरोध में एक भाषण दिया तो राजद्रोह का आरोप लगाकर वे फिर से गिरफ़्तार कर लिये गए। 1930 में कांग्रेस को सरकार ने गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष चुने गए। लेकिन सरकार ने उन्हें पहले ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। उनकी पत्नी नेली सेनगुप्त भी गिरफ़्तार की गईं। 

1931 में उनका नाम पुन: अध्यक्ष पद के लिए लिया गया था, किन्तु उन्होंने सरदार पटेल के पक्ष में कराची कांग्रेस की अध्यक्षता से अपना नाम वापस ले लिया। 1931 में वे स्वास्थ्य सुधार के लिए विदेश गए, लेकिन 1932 में स्वदेश लौटते ही पुन: गिरफ़्तार कर लिये गए | 

इसके बाद वे बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय नेतृत्व किया। वे 1931 ई. में प्रथम गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ होने पर इंग्लैण्ड गए थे। वे जनवरी, 1932 ई. में बन्दी बना लिये गए तथा उन्हें पूना, दार्जिलिंग व राँची में कैद रखा गया। उनकी 1933 ई. में 48 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु हो गई। उन्होंने जीवनभर राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। वे ‘देशप्रिय’ उपनाम से विख्यात हैं।

 1933 में कोलकाता में कांग्रेस का अधिवेशन प्रस्तावित था, जिसकी अध्यक्षता महामना मदन मोहन मालवीय जी को करनी थी, लेकिन अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें मार्ग में ही गिरफ़्तार कर लिया और कोलकाता जाने से रोक दिया। इसके बाद पुलिस के सारे बन्धनों को तोड़ते हुए श्रीमती नेल्ली सेनगुप्त ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की। परन्तु वे अपने भाषण के कुछ शब्द ही बोल पाई थीं कि उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त को अस्वस्थ अवस्था में ही जेल में बन्द रखा गया था। 22 जुलाई, 1933 को रांची में उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु जेल के अन्दर ही (राँची में) हुई। उनकी पत्नी नेली सेनगुप्त, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं।

#हरदिनपावन

(साभार: http://bharat discovery.org, http://wikipedia.org)

Friday, February 21, 2020

शिव और विज्ञान / शिव के तांडव नृत्य को अमेरिकन वैज्ञानिक ने परमाणुओं की उत्पत्ति से जोड़ा


स्विटजरलैंड में यूरोपियन परमाणु शोध संस्थान के बाहर लगी है शिव के नटराज स्वरूप की प्रतिमा

भगवान शिव की पूजा धार्मिक नजरिए से महत्वपूर्ण तो है ही इसका वैज्ञानिक महत्व भी है।ऑस्ट्रियन मूल के अमेरिकन भौतिकी वैज्ञानिक और दार्शनिक फ्रिटजॉफ़ कैपरा ने शिवजी के नटराज स्वरूप के तांडव नृत्य को परमाणुओं की उत्पत्ति और विनाश से जोड़ा है।फ्रिटजॉफ़ कैपरा ने1972 में प्रकाशित मेन करेंट्स ऑफ मॉडर्न थॉट नाम की अपनी किताब में द डांस ऑफ शिव नाम के लेख में शिव के नृत्य और उप परमाणु कणों के नृत्य के बीच समानता की चर्चा की थी।

इसके बाद 8 जून, 2004 को जिनेवा में CERN के यूरोपीयन सेंटर फॉर रिसर्च इन पार्टिकल फिजिक्स में शिव के तांडव नृत्य करती हुई नटराज स्वरूप की 2 मीटर ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया गया। इस मूर्ति को भारत द्वारासर्न के साथ अनुसंधान केंद्र के लंबे सहयोग का जश्न मनाने के लिए दिया गया था।

शिव के तांडव में विज्ञान

शिव जी के नृत्य के दो रूप है। एक है लास्य जिसे नृत्य का कोमल रूप कहा जाता है। वहीं दूसरा तांडव है जो कि विनाश को दर्शाता है। भगवान शिव के नृत्य की अवस्थाएं सजृन और विनाश दोनों को समझाती है। शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के नृत्य यानी उनके उतार-चढ़ाव की क्रियाओं का प्रतीक है।
यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्‍यूक्‍लियर रिसर्च (सर्न)की प्रयोगशाला के बाहर नटराज की मूर्ति रखी हुई है। नटराज की मूर्ति और ब्रह्मांडीय नृत्य के बारे में भौतिक वैज्ञानिक और दार्शनिक फ्रिट्जॉफ केप्रा ने भौतिकी विज्ञान का हवाला देते हुए बताया है कि भौतिक वैज्ञानिक फिर से उन्‍नत तकनीकों को इस्‍तेमाल करते हुए कॉस्‍मिक डांस का प्रारूप तैयार कर रहे हैं। कॉस्मिक डांस यानि भगवान शिव का तांडव नृत्य जो किविनाश व सृजन दोनों का प्रतिक है।
तांडव करते हुए नटराज के पीछे बना चक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। उनके दाएं हाथ का डमरू नए परमाणु की उत्पत्ति व बाएं हाथ में अग्नि पुराने परमाणुओं के विनाश की ओर संकेत देती है। इससे ये समझा जा सकता है कि अभय मुद्रा में भगवान का दूसरा दांया हाथ हमारी सुरक्षा जबकि वरद मुद्रा में उठा दूसरा बांया हाथ हमारी जरुरतों की पूर्ति सुनिश्चित करता है।
शिव पूजा का विज्ञान

उज्जैन के धर्म विज्ञान शोध संस्थान के वैज्ञानिकों ने शिवलिंग पर चढ़ाए जाने वाली पूजन सामग्री को लेकर शोध किया है। शोध में दावा किया है कि न्यूक्लियर रियेक्टर और शिवलिंग में समानता होती है। इसलिए ज्योतिर्लिंग पर रेडिएशन अधिक होता है। रेडिएशन के कारण आवेश अधिक न हो इसलिए शिवलिंग पर लगातार जल चढ़ाया जाता है।
संस्थान के वरिष्ठ धर्म वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचंद्र जोशी के अनुसार न्यूक्लियर में आग के पदार्थ कार्डिएक ग्लाएकोसाइट्स कैल्शियम ऑक्सीलेट, फेटी एसिड, यूरेकिन, टोक्सिन आदि पाए जाते हैं। इनसे पैदा होने वाली गर्मी को संतुलित करने के लिए ही शिव पूजा में मदार यानी आंकड़े के फूल व बिल्व पत्र चढ़ाए जाते हैं, जो कि न्यूक्लियर ऊर्जा को संतुलित रखते हैं।धर्म और विज्ञान पर अध्ययन करने वाली इस संस्था ने शिवलिंग पर चढ़ाए जाने वाली चीजों की प्रकृति और उनमें पाए जाने वाले तत्वों की वैज्ञानिक व्याख्या के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है।
धर्म विज्ञान शोध संस्थान केवैभव जोशी के अनुसार दूध में फेट, प्रोटीन, लैक्टिक एसिड व दही में विटामिन्स, कैल्शियम, फॉस्फोरस व शहद में फ्रुक्टोस, ग्लूकोज जैसे डाईसेक्राइट, ट्राईसेक्राइट, प्रोटीन, एंजाइम्स होते हैं। वहींदूध, दही, शहद शिवलिंग पर कवच बनाए रखते हैं। इसके साथ ही शिव मंत्रों से निकलने वाली ध्वनि आवेशित ऊर्जा का ब्रह्मांड में धनात्मक परिवर्तन करने में सहायक है।
बिल्वपत्र से नियंत्रित होती है शरीर की गर्मी

बिल्वपत्र मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते है।जिससे इसकी तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसका उपयोग फायदेमंद होता है। बिल्वपत्र का औषधिय उपयोग करने से आंखों की रोशनी बढ़ती है। पेट के कीड़े खत्म होते हैं और शरीर की गर्मी नियंत्रित होती है।

रुद्राक्ष से ब्लड प्रेशर व कोलेस्ट्रॉल रहता है नियंत्रित

धार्मिक नजरिए से देखा जाए तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिषाचार्य पं. गणेश मिश्रा के अनुसार शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता में बताया गया है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिवजी के आंसुओं से हुई है। वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार रूद्राक्ष में पाए जाने वाले गुण मनुष्य के नर्वस सिस्टम को दुरुस्त रखते हैं।
रुद्राक्ष में केमो फॉर्मेकोलॉजिकल नाम का गुण पाया जाता है। इस गुण से ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्रॉल नियंत्रित रहता है। इससे दिल संबंधी रोग होने का खतरा कम हो जाता है। रुद्राक्ष में आयरन, फॉस्फोरस, एल्युमीनियम, कैल्शियम, सोडियम और पोटैशियम गुण पर्याप्त मात्रा में होते हैं। रुद्राक्ष के ये गुण शरीर के नर्वस सिस्टम को दुरुस्त रखते हैं।

हलधर नाग

जाने दिजिए.. क्या करेंगे नाम जानकर....गूगल पर सर्च करेंगे तो धोखा खा जाएंगे....ये शख्स ना कन्हैया वाली नौटंकी जानता है...ना रोहित वेमुला की तरह बुजदिल है....ना धूर्तवाल की तरह  सादगी की नुमाइश....ऐसे लोगों को चैनल वाले क्यों दिखाएंगे...क्यों बताएंगे...क्यों सुनाएंगे इनके बारे में...कोई घोड़े की टांग थोड़े ना टूटी है...ना किसी हीरोइन के बदन से तौलिया फिसला है....
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ये हैं ओड़िशा के हलधर नाग । जो कोसली भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं। ख़ास बात यह है कि उन्होंने जो भी कविताएं और 20 महाकाव्य अभी तक लिखे हैं, वे उन्हें ज़ुबानी याद हैं। अब संभलपुर विश्वविद्यालय में उनके लेखन के एक संकलन ‘हलधर ग्रन्थावली-2’ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। सादा लिबास, सफेद धोती, गमछा और बनियान पहने, नाग नंगे पैर ही रहते हैं। ऐसे हीरे को चैनलवालों ने नहीं, मोदी सरकार ने पद्मश्री के लिए खोज के  निकाला है...
हलधर नाग : ढाबा में जूठन धोने से लेकर पद्मश्री तक.!

उड़‍िया लोक-कवि हलधर नाग के बारे में जब आप जानेंगे तो प्रेरणा से ओतप्रोत हो जायेंगे। हलधर एक गरीब दलित परिवार से आते हैं।10 साल की आयु में मां बाप के देहांत के बाद उन्‍होंने तीसरी कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ दी थी। अनाथ की जिंदगी जीते हुये ढाबा में जूठे बर्तन साफ कर कई साल  गुजारे। बाद में एक स्कूल में रसोई की देखरेख का काम मिला। कुछ वर्षों बाद बैंक से 1000रु कर्ज लेकर पेन-पेंसिल आदि की छोटी सी दुकान उसी स्कूल के सामने खोल ली जिसमें वे छुट्टी के समय पार्टटाईम बैठ जाते थे। यह तो थी उनकी अर्थ व्यवस्था। अब आते हैं उनकी साहित्यिक विशेषता पर। हलधर ने 1995 के आसपास स्थानीय उडिया भाषा में ''राम-शबरी '' जैसे कुछ धार्मिक प्रसंगों पर लिख लिख कर लोगों को सुनाना शुरू किया। भावनाओं से पूर्ण कवितायें लिख जबरन लोगों के बीच प्रस्तुत करते करते वो इतने लोकप्रिय हो गये कि इस साल राष्ट्रपति ने उन्हें साहित्य के लिये पद्मश्री प्रदान किया। इतना ही नहीं 5 शोधार्थी अब उनके साहित्य पर PHd कर रहे हैं जबकि स्वयं हलधर तीसरी कक्षा तक पढे हैं।
साभार-सुदेश रजनी.

Thursday, February 20, 2020

21 फरवरी/पुण्य-तिथिकित्तूर की वीर रानी चेन्नम्मा


कर्नाटक में चेन्नम्मा नामक दो वीर रानियां हुई हैं। केलाड़ी की चेन्नम्मा ने औरंगजेब से, जबकि कित्त्ूार की चेन्नम्मा ने अंग्रेजों से संघर्ष किया था। 

कित्तूर के शासक मल्लसर्ज की रुद्रम्मा तथा चेन्नम्मा नामक दो रानियां थीं। काकतीय राजवंश की कन्या चेन्नम्मा को बचपन से ही वीरतापूर्ण कार्य करने में आनंद आता था। वह पुरुष वेश में शिकार करने जाती थी। ऐसे ही एक प्रसंग में मल्लसर्ज की उससे भेंट हुई। उसने चेन्नम्मा की वीरता से प्रभावित होकर उसे अपनी दूसरी पत्नी बना लिया। 

कित्तूर पर एक ओर टीपू सुल्तान तो दूसरी ओर अंग्रेज नजरें गड़ाये थे। दुर्भाग्यवश चेन्नम्मा के पुत्र शिव बसवराज और फिर कुछ समय बाद पति का भी देहांत हो गया। ऐसे में बड़ी रानी के पुत्र शिवरुद्र सर्ज ने शासन संभाला; पर वह पिता की भांति वीर तथा कुशल शासक नहीं था। स्वार्थी दरबारियों की सलाह पर उसने मराठों और अंग्रेजों के संघर्ष में अंग्रेजों का साथ दिया। 

अंग्रेजों ने जीतने के बाद सन्धि के अनुसार कित्तूर को भी अपने अधीन कर लिया। कुछ समय बाद बीमारी से राजा शिवरुद्र सर्ज का देहांत हो गया। चेन्नम्मा ने शिवरुद्र के दत्तक पुत्र गुरुलिंग मल्लसर्ज को युवराज बना दिया।

पर अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को नहीं माना तथा राज्य की देखभाल के लिए धारवाड़ के कलैक्टर थैकरे को अपना राजनीतिक दूत बनाकर वहां बैठा दिया। कित्तूर राज्य के दोनों प्रमुख दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव भी रानी से नाराज थे। वे अंदर ही अंदर अंग्रेजों से मिले थे। 

थैकरे ने रानी को संदेश भेजा कि वह सारे अधिकार तुरंत मल्लप्पा शेट्टी को सौंप दे। रानी ने यह आदेश ठुकरा दिया। वे समझ गयीं कि अब देश और धर्म की रक्षा के लिए लड़ने-मरने का समय आ गया है। रानी अपनी प्रजा को मातृवत प्रेम करती थीं। अतः उनके आह्नान पर प्रजा भी तैयार हो गयी। गुरु सिद्दप्पा जैसे दीवान तथा बालण्णा, रायण्णा, जगवीर एवं चेन्नवासप्पा जैसे देशभक्त योद्धा रानी के साथ थे।

23 अक्तूबर, 1824 को अंग्रेज सेना ने थैकरे के नेतृत्व में किले को घेर लिया। रानी ने वीर वेश धारण कर अपनी सेना के साथ विरोधियों को मुंहतोड़ उत्तर दिया। थैकरे वहीं मारा गया और उसकी सेना भाग खड़ी हुई। कई अंग्रेज सैनिक तथा अधिकारी पकड़े गये, जिन्हें रानी ने बाद में छोड़ दिया; पर देशद्रोही दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव को फांसी पर चढ़ा दिया गया।

स्वाधीनता की आग अब कित्तूर के आसपास भी फैलने लगी थी। अतः अंग्रेजों ने मुंबई तथा मद्रास से कुमुक मंगाकर फिर धावा बोला। उन्हें इस बार भी मुंह की खानी पड़ी; पर तीसरे युद्ध में उन्होंने एक किलेदार शिव बासप्पा को अपने साथ मिला लिया। उसने बारूद में सूखा गोबर मिलवा दिया तथा किले के कई भेद शत्रुओं को दे दिये। अतः रानी को पराजित होना पड़ा।

अंग्रेजों ने गुरु सिद्दप्पा को फांसी पर चढ़ाकर रानी को धारवाड़ की जेल में बंद कर दिया। देशभक्त जनता ने रानी को मुक्त कराने का प्रयास किया; पर वे असफल रहे। पांच वर्ष के कठोर कारावास के बाद 21 फरवरी, 1929 को धारवाड़ की जेल में ही वीर रानी चेन्नम्मा का देहांत हुआ।

रानी ने 23 अक्तूबर को अंग्रेजों को ललकारा था। उनकी याद में इस दिन को दक्षिण भारत में ‘महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, राष्ट्रधर्म अपै्रल 2011)

#हरदिनपावन

Tuesday, February 18, 2020

19 फरवरी/जन्मदिवस*तपस्वी जीवन श्री गुरुजी*


संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने देहान्त से पूर्व जिनके समर्थ कन्धों पर संघ का भार सौंपा, वे थे श्री माधवराव गोलवलकर, जिन्हें सब प्रेम से श्री गुरुजी कहकर पुकारते हैं। माधव का जन्म 19 फरवरी, 1906 (विजया एकादशी) को नागपुर में अपने मामा के घर हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे।

माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे। उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे। अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलंेगे। एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब माधव को बुलाकर वह प्रश्न हल किया गया।

वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकंे भी खूब पढ़ते थे। नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलिज में प्रधानाचार्य श्री गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे। एक बार माधव ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया। जब बाइबिल मँगाकर देखी गयी, तो माधव की बात ठीक थी। इसके अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बाँसुरीवादन भी माधव के प्रिय विषय थे।

उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे। जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। एम-एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिए मद्रास गये; पर वहाँ का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये। 

उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी भी उनसे बहुत प्रेम करते थे। कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये। वहाँ उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली। 

स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये। उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झांेक दी। 

1947 में देश आजाद हुआ; पर उसे विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा। 1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया; पर उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी। इससे सब ओर उनकी ख्याति फैल गयी। संघ-कार्य भी देश के हर जिले में पहुँच गया।

श्री गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ; पर पूरी तरह नहीं। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर शरीर का अपना कुछ धर्म होता है। उसे निभाते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।

#हरदिनपावन

Monday, February 17, 2020

18 फरवरी/बलिदान-दिवसअग्निधर्मी पत्रकार रामदहिन ओझा

रामदहिन ओझा का जन्म श्री सूचित ओझा के घर 1901 की महाशिवरात्रि को ग्राम बाँसडीह (जिला बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई। इसके बाद इनके पिता ने इन्हें उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता भेज दिया। वहाँ इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ। इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में कूदना शिक्षा से अधिक जरूरी समझा। 

1921 में जब गांधी जी ने सत्याग्रह का आह्नान किया, तो जो सात सत्याग्रही सर्वप्रथम जेल गये, उनमें ये भी थे। गांधी जी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इनके साहस की प्रशंसा करते हुए इन्हें ‘सप्तर्षिमंडल’ की संज्ञा दी थी। इनकी गतिविधियों से चिंतित होकर 11 मार्च 1921 को बलिया के जिलाधीश ने इन्हें तुरन्त जिला छोड़ने का आदेश दिया। अतः ये गाजीपुर आकर स्वतन्त्रता के लिए अलख जगाने लगे। इस पर 15 अप्रैल को गाजीपुर के जिलाधीश ने भी इन्हें जिला छोड़ने को कह दिया। 16 मई, 1921 को इन्हें गिरफ्तार कर छह महीने का कठोर कारावास दिया गया। 30 जनवरी, 1922 को फिर इन्हें पकड़कर एक साल के लिए जेल में डाल दिया। 

सजा पूरी कर वे कोलकाता चले गये और वहाँ ‘विश्वमित्र’ नामक दैनिक समाचार पत्र से जुड़ गये। कुछ समय बाद वे ‘युगान्तर’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र के सम्पादक बने। इसके मुखपृष्ठ पर यह पंक्ति छपती थी - मुक्त हों हाथ, हथकड़ी टूटे, राष्ट्र का सिंहनाद घर-घर हो। इसी से पता लगता है कि समाचार पत्र में क्या होता होगा। इसके बाद वे ‘शेखावाटी’ समाचार पत्र के सम्पादक भी बने। वे जिस पत्र में भी रहे, उनकी कलम सदा अंग्रेजों के विरुद्ध आग ही उगलती रही। 

युगान्तर में 4 अगस्त, 1924 को उन्होंने लिखा, ‘‘मालूम पड़ता है भारतीय सदा गुलाम ही रहना चाहते हैं। वह भी मामूली गुलाम नहीं। संसार के इतिहास में ऐसी गुलामी खोजे नहीं मिलेगी। पशु भी पिंजरे में बन्द रहने पर दो बूँद आँसू बहा सकते हैं; पर गुलाम भारतीय दिल खोलकर रो भी नहीं सकते।’’ 

इस पर शासन ने उन्हें कोलकाता छोड़ने का भी आदेश दे दिया। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। 1930 के नमक आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। शासन ने उन्हें बलिया से 27 अक्तूबर को गिरफ्तार कर छह माह के कठोर कारावास का दण्ड दिया। यह स्वाधीनता संग्राम में इनकी चौथी गिरफ्तारी थी; पर इससे भी झुकने या टूटने की बजाय इनका उत्साह और बढ़ गया।

शासन ने इन्हें रास्ते से हटाने का एक सरल मार्ग ढूँढा। इन्हें खाने में हल्का जहर दिया जाने लगा। इसके कारण 17 फरवरी, 1931 को इनकी तबियत बहुत खराब हो गयी। बलिया जेल के अधिकारियों ने बिना किसी पूर्व सूचना के उन्हें स्थानीय जमींदार महावीर प्रसाद के निवास पर पहुँचा दिया। 

महादेव प्रसाद अपनी गाड़ी से उन्हें बलिया चिकित्सालय ले गये। वहाँ पर भी उन्हें उचित चिकित्सा नहीं मिली। इस पर उन्हें जानकी प्रसाद जी के आवास पर लाया गया। वहाँ रात भर तड़पने के बाद 18 फरवरी, 1931 की प्रातः उनका निधन हो गया। इस प्रकार उन्होंने केवल 30 साल की अल्पायु में ही बलिदानी चोला पहन लिया। 

रामदहिन जी जैसे पत्रकारों के बारे में ही प्रख्यात पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लिखा है, ‘‘वे ही सम्पादक थे, जिनसे धनी घृणा करते थे। शासक क्रुद्ध रहा करते थे। जो हमारे ही जैसा एक पैर जेल में रखकर धर्मबुद्धि से पत्र का सम्पादन किया करते थे।’’

#हरदिनपावन

Saturday, February 15, 2020

सप्रभातं

*जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:।* 
*स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥*

पानी की एक एक बूंद भी निरंतर गिरने से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार धीरे धीरे अभ्यास करने से सब विद्याओं की प्राप्ति हो जाती है, एवम् थोड़ा थोड़ा करके ही धर्म और धन का संचय भी हो जाता है।

A pot is filled by tiny drops of water pouring regularly in it.
Similarly, regular little efforts make a person learned, wealthy and blissful.

निरंतर प्रयास करें।

*सुदिनमस्तु*

🌺🌹💐🙏🏼

*जय श्रीकृष्ण*

16 फरवरी/जन्म-दिवसमहाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 16 फरवरी, 1896 (वसंत पंचमी) को हुआ था। यह परिवार उत्तर प्रदेश में उन्नाव के बैसवारा क्षेत्र में ग्राम गढ़ाकोला का मूल निवासी था; पर इन दिनों इनके पिता बंगाल में महिषादल के राजा के पास पुलिस अधिकारी और कोषप्रमुख के पद पर कार्यरत थे।

इनकी औपचारिक शिक्षा केवल कक्षा दस तक ही हुई थी; पर इन्हें शाही ग्रन्थालय में बैठकर पढ़ने का भरपूर अवसर मिला। इससे इन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा बंगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान हो गया।

सूर्यकान्त को बचपन से ही विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएँ पढ़ने में बहुत आनन्द आता था। यहीं से उनके मन में काव्य के बीज अंकुरित हुए। केवल 15 वर्ष की छोटी अवस्था में उनका विवाह मनोरमा देवी से हुआ। इनकी पत्नी ने भी इन्हें कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। इनके एक पुत्र और एक पुत्री थी; पर केवल 18 वर्ष की आयु में इनकी पुत्री सरोज का देहान्त हो गया। उसकी याद में निराला ने ‘सरोज स्मृति’ नामक शोक गीत लिखा, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने हाथ के पैसे खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। एक बार किसी कार्यक्रम में उन्हें बहुत कीमती गरम चादर भेंट की गयी; पर जब वे बाहर निकले, तो एक भिखारी ठण्ड में सिकुड़ रहा था। निराला जी ने वह चादर उसे दे दी। उनकी इस विशालहृदयता के कारण लोग उन्हें महाप्राण निराला कहने लगे। निर्धनों के प्रति इस करुणाभाव से ही उनकी ‘वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता…’ नामक विख्यात कविता का जन्म हुआ।

निराला ने हिन्दी साहित्य को कई अमूल्य कविताएँ व पुस्तकें दीं। उन्होंने कविता में मुक्तछन्द जैसे नये प्रयोग किये। कई विद्वानों ने इस व्याकरणहीन काव्य की आलोचना भी की; पर निराला ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उनके कवितापाठ की शैली इतनी मधुर एवं प्रभावी थी कि वे मुक्तछन्द भी समाँ बाँध देते थे। यद्यपि उन्होंने छन्दबद्ध काव्य भी लिखा है; पर काव्य की मुक्तता में उनका अधिक विश्वास था। वे उसे नियमों और सिद्धान्तों के बन्धन में बाँधकर प्राणहीन करने के अधिक पक्षधर नहीं थे।

उस समय हिन्दी साहित्य में शुद्ध व्याकरण की कसौटी पर कसी हुई कविताओं का ही अधिक चलन था। अतः उनकी उन्मुक्तता को समकालीन साहित्यकारों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया। कई लोग तो उन्हें कवि ही नहीं मानते थे; पर श्रोता उन्हें बहुत मन से सुनते थे। अतः झक मारकर बड़े और प्रतिष्ठित साहित्यकारों को भी उन्हें मान्यता देनी पड़ी।

काव्य की तरह उनका निजी स्वभाव भी बहुत उन्मुक्त था। कभी वे कोलकाता रहे, तो कभी वाराणसी और कभी अपनी पितृभूमि गढ़ाकोला में। लखनऊ से निकलने वाली ‘सुधा’ नामक पत्रिका से सम्बद्ध रहने के कारण वे कुछ समय लखनऊ भी रहे। यहीं पर उन्होंने ‘गीतिका’ और ‘तुलसीदास’ जैसी कविता तथा ‘अलका’ एवं ‘अप्सरा’ जैसे उपन्यास लिखे। उन्होंने कई लघुकथाएँ भी लिखीं। ‘राम की शक्ति पूजा’ उनकी बहुचर्चित कविता है।

अपने अन्तिम दिनों में निराला जी प्रयाग में बस गये। सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा और निराला के कारण प्रयाग हिन्दी काव्य का गढ़ बन गया। वहीं 15 अक्तूबर, 1961 को उनका देहान्त हुआ।

हरदिनपावन

आन्वीक्षिकी विद्या

आन्वीक्षिकी न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा 'आन्वीक्षिकी' पड़ गई। अन्वीक्षा के दो अर्थ हैं:
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। 
विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतव:।।


 (1) प्रत्यक्ष तथा आगम पर आश्रित अनुमान तथा (2) प्रत्यक्ष और शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत होने वाले विषयों का अनु (पश्चात्‌) ईक्षण (पर्यालोचन, अर्थात ज्ञान), अर्थात अनुमिति।

 न्यायशास्त्र का प्रधान लक्ष्य तो है प्रमाणों के द्वारा अर्थो का परीक्षण,

प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:-न्यायभाष्य 1।1।1 

 परंतु इन प्रमाणों में भी अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है और इस अनुमान द्वारा प्रवृत्त होने के कारण तर्क प्रधान 'आन्वीक्षिकी' का प्रयोग न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मुनि ने न्यायदर्शन के लिए ही उपयुक्त माना है। दूसरी धारा में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, इन चार प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा विश्लेषण मुख्य उद्देश्य था। फलत: इस प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं। इसका प्रवर्तन गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) ने अपने प्रख्यात ग्रंथ 'तत्वचिंतामणि'में किया। 'प्राचीन न्याय' (प्रथम धारा) में पदार्थों की मीमांसा मुख्य विषय है, 'नव्यन्याय' (द्वितीय धारा) में प्रमाणों का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य है। नव्यन्याय का उदय मिथिला में हुआ, परंतु इसका अभ्युदय बंगाल में संपन्न हुआ। मध्ययुगीन बौद्ध तार्किकों के साथ घोर संघर्ष होने से खंडन मंडन के द्वारा यह शास्त्र विकसित होता गया। प्राचीन न्याय के मुख्य आचार्य हैं गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयंत भट्ट, भा सर्वज्ञ तथा उदयनाचार्य। नव्यन्याय के आचार्य हैं गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश भट्टाचार्य तथा गदाधर भट्टाचार्य। इन दोनों धाराओं में मध्य बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय के अभ्युदय का काल आता है। बौद्ध नैयायिकों में वसुवंधु, दिङ्‌नाग, धर्मकीर्ति के नाम प्रमुख हैं।




साभार bhartdiscovery.org

Friday, February 14, 2020

15 फरवरी/जन्म-दिवसकूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पाण्डेय



उत्तरांचल राज्य मुख्यतः दो पर्वतीय क्षेत्रों, गढ़वाल और कुमाऊं से मिल कर बना है। कुमाऊं को प्राचीन समय से कूर्मांचल कहा जाता है। यहां के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्री बद्रीदत्त पांडेय का जन्म 15 फरवरी, 1882 को हरिद्वार के प्रसिद्ध वैद्य श्री विनायक दत्त पांडेय के घर में हुआ था। अल्पावस्था में माता और पिता के देहांत के बाद इनका लालन-पालन बड़े भाई ने किया।
अल्मोड़ा में पढ़ते समय इन्होंने स्वामी विवेकानंद, महामना मदनमोहन मालवीय तथा ऐनी बेसेंट जैसे महान लोगों के भाषण सुने। बड़े भाई की मृत्यु हो जाने से इन्हें शिक्षा अधूरी छोड़कर 1902 में सरगुजा राज्य में नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद उन्होंने नैनीताल में अध्यापन तथा चकराता (देहरादून) की सैनिक कार्यशाला में भी काम किया। 1908 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 

पत्रकारिता में रुचि होने से प्रयाग के ‘लीडर’ तथा देहरादून के ‘कॉस्मोपोलिटिन’ पत्रों में काम करने के बाद 1913 में उन्होंने ‘अल्मोड़ा अखबार’ निकाला। जनता की कठिनाई तथा शासन के अत्याचारों के बारे में विस्तार से छापने के कारण कुछ ही दिन में यह पत्र लोकप्रिय हो गया। इससे सरकारी अधिकारी बौखला उठे। उन्होंने इनसे जमानत के नाम पर एक बड़ी राशि जमा करने को कहा। बद्रीदत्त जी ने वह राशि नहीं दी और समाचार पत्र बन्द हो गया।

1918 की विजयादशमी से बद्रीदत्त जी ने ‘शक्ति’ नामक एक नया पत्र प्रारम्भ कर दिया। कुमाऊं के स्वाधीनता तथा समाज सुधार आंदोलनों में इस पत्र तथा बद्रीदत्त जी का बहुत बड़ा योगदान है। 1916 में उन्होंने ‘कुमाऊं परिषद’ नामक संस्था बनाई, जिसे गांधी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। 1920 में इसके काशीपुर अधिवेशन में पहाड़ में प्रचलित कुली और बेगार जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने के प्रस्ताव पारित किये गये। 

‘कुली बेगार प्रथा’ के विरोध में 1921 की मकर संक्रांति पर 40,000 लोग बागेश्वर में एकत्र हुए। बद्रीदत्त जी, हरगोविन्द पंत, मोहन जोशी आदि नेता काफी दिनों से प्रवास कर इसकी तैयारी कर रहे थे। सभा के बीच अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर डाइविल ने सैकड़ों सिपाहियों के साथ वहां आकर सबको तुरन्त चले जाने को कहा; पर बद्रीदत्त जी ने यह आदेश ठुकरा दिया। उनकी प्रेरणा से सब लोगों ने सरयू का जल हाथ में लेकर बाघनाथ भगवान के सम्मुख इस कुप्रथा को न मानने की शपथ ली और इसकी बहियां फाड़कर नदी में फेंक दीं।

इस अहिंसक क्रांति ने बद्रीदत्त जी को जनता की आंखों का तारा बना दिया। लोगों ने उन्हें ‘कूर्मांचल केसरी’ की उपाधि तथा दो स्वर्ण पदक प्रदान किये। 1962 में चीन से युद्ध के समय उन्होंने वे पदक राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दे दिये। स्वाधीनता आंदोलन में वे पांच बार जेल गये। स्वाधीनता से पूर्व तथा बाद में वे उत्तर प्रदेश विधानसभा तथा 1955 में संसद के सदस्य बने।

बद्रीदत्त जी के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आये। बरेली कारावास के समय इनका पुत्र तारकनाथ जन्माष्टमी के दिन वाराणसी में नहाते समय नदी में डूब गया। वह प्रयाग से से बी.एस-सी कर रहा था। यह सुनकर मुंबई में रह रही इनकी पुत्री जयन्ती ने आत्मदाह कर लिया। इनकी धर्मपत्नी भी बेहोश हो गयीं; पर बद्रीदत्त जी ने संयम नहीं खोया। उन दिनों वे ‘कुमाऊं का इतिहास’ लिख रहे थे। उन्होंने अपने दुख को इस पुस्तक के लेखन में विसर्जित कर दिया। यह शोधार्थियों के लिए आज भी एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रन्थ है।

13 जनवरी, 1965 को बद्रीदत्त जी का देहांत हुआ। उनका दाह संस्कार बागेश्वर में सरयू के तट पर किया गया, जहां से उन्होंने देश की स्वाधीनता और कुली बेगार प्रथा के विरोध में अहिंसक क्रांति का शंखनाद किया था।

(संदर्भ : शिशु मंदिर संदेश, देवभूमि उत्तराखंड अंक, जनवरी 2009)

#हरदिनपावन

Thursday, February 6, 2020

7 फरवरी/जन्म-दिवस*चम्बल के सन्त सुब्बाराव*


कोई समय था, जब चम्बल की पहाड़ियांे और घाटियों में डाकुओं का आतंक चरम पर था। ये डाकू स्वयं को बागी कहते थे। हर दिन वहाँ बन्दूकें गरजती रहती थीं। ऐसे में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण से प्रभावित सालिम नंजदुइयाह सुब्बाराव ने स्वयं को इस क्षेत्र में समर्पित कर दिया।
सुब्बाराव का जन्म सात फरवरी, 1929 को बंगलौर में हुआ था। इनके पिता श्री नंजदुइयाह एक वकील थे; पर वे झूठे मुकदमे नहीं लड़ते थे। घर में देशप्रेम एवं अध्यात्म की सुगन्ध व्याप्त थी। इसका प्रभाव बालक सुब्बाराव पर भी पड़ा। 13 वर्ष की अवस्था में जुलूस निकालते हुए ये पकड़े गये; पर छोटे होने के कारण इन्हें छोड़ दिया गया। 

इन्हीं दिनों इन्होंने अपने मित्र सुब्रह्मण्यम के घर जाकर सूत कातना और उसी से बने कपड़े पहनना प्रारम्भ कर दिया। कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उन्हें कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक डा0 हर्डीकर का पत्र मिला, जिसमें उनसे दिल्ली में सेवादल का कार्य करने का आग्रह किया गया था। 

दिल्ली में सेवा दल का कार्य करते हुए वे कांग्रेस के बड़े नेताओं के सम्पर्क में आये; पर उन्होंने सत्ता की राजनीति से दूर रहकर युवाओं के बीच कार्य करने को प्राथमिकता दी। उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ को अपने जीवन में स्थान दिया। 

वे सदा खादी की खाकी निकर तथा कमीज पहनते हैं। उनके पास निजी सम्पत्ति के नाम पर खादी के दो थैले रहते हैं। एक में कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ रहती हैं तथा दूसरे में एक छोटा टाइपराइटर और कागज।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद ही कांग्रेस अपने पथ से भटक गयी और फिर कांग्रेस सेवा दल भी सत्ता की दलदल में फँस गया। इससे सुब्बाराव का मन खिन्न हो गया। उन्हीं दिनों विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण चम्बल के बागियों के बीच घूमकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित कर रहे थे। सुब्बाराव इस कार्य में उनके साथ लग गये। 14 अपै्रल, 1972 को इनके प्रयास रंग लाये, जब 150 से भी अधिक खूंखार दस्युओं ने गांधी जी के चित्र के सामने अपने शस्त्र रख दिये। इसमें सुब्बाराव की मुख्य भूमिका थी, जो ‘भाई जी’ के नाम से विख्यात हो चुके थे।

सुब्बाराव को युवकों तथा बच्चों के बीच काम करने में आनन्द आता है। वे देश भर में उनके लिए शिविर लगाते हैं। उनका मानना है कि नयी पीढ़ी के सामने यदि आदर्शवादी लोगों की चर्चा हो, तो वे उन जैसे बनने का प्रयास करेंगे; पर दुर्भाग्य से प्रचार माध्यम आज केवल नंगेपन, भ्रष्टाचार और जाति, प्रान्त आदि के भेदों को प्रमुखता देते हैं। इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है।

आगे चलकर बागियों के आत्मसमर्पण का अभियान भी राजनीति की भेंट चढ़ गया; पर सुब्बाराव ने इससे निराश न होते हुए 27 सितम्बर, 1970 को चम्बल घाटी के मुरैना जिले में जौरा ग्राम में ‘महात्मा गांधी सेवा आश्रम’ की स्थापना की। आज भी वे उसी को अपना केन्द्र बनाकर सेवाकार्यों में जुटे हैं। 

सुब्बाराव ने केवल देश में ही नहीं, तो विदेश में भी युवकों के शिविर लगाये हैं। उन्हें देश-विदेश के सैकड़ों पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। इससे प्राप्त राशि वे सेवा कार्य में ही खर्च करते हैं। चरैवेति-चरैवेति के उपासक सुब्बाराव अधिक समय कहीं रुकते भी नहीं है। एक शिविर समाप्त होने पर वे अगले शिविर की तैयारी में लग जाते हैं।

#हरदिनपावन