Tuesday, May 15, 2018

महर्षि उद्दालक

उद्दालक, उपनिषद युग के श्रेष्ठ तत्ववेत्ताओं में मूर्धन्य चिंतक थे। ये गौतम गोत्रीय आरुणि ऋषि के पुत्र थे और इसीलिए 'आरुणि' के नाम से विशेष प्रख्यात हैं। ये महाभारत में धौम्य ऋषि के शिष्य तथा अपनी एकनिष्ठ गुरुसेवा के निमित्त आदर्श शिष्य बतलाए गए हैं। (महाभारत, आदिपर्व)।
प्रायः माना जाता है कि ग्रीक सन्त थेल्स (७६ ईसापूर्व) विज्ञान के अग्रदूत थे। किन्तु प्रसिद्ध इतिहासकार देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने सिद्ध किया है कि वास्तव में थेल्स नहीं बल्कि उद्दालक प्रथम चिन्तक थे जिन्होने ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन किया था ।


गुरुभक्त आरुणि

ऋषि धौम्य के आश्रम में कई छात्र रहते थे। वह उन्हें पूरी तत्परता से पढ़ाते, साथ ही उनकी कड़ी परीक्षा भी लेते रहते थे। इन परीक्षाओं में अलग-अलग कसौटियां तय की जातीं और देखा जाता कि विद्यार्थी सीखी गई विद्या और गुरु के प्रति कितना निष्ठावान है।
एक दिन मूसलाधार वर्षा हो रही थी। गुरु ने अपने एक छात्र आरुणि से कहा, 'बेटा! खेत की मेड़ टूट जाने से पानी बाहर निकला जा रहा है, सो तुम जाकर मेड़ बांध आओ।' आरुणि तत्काल उठ खड़ा हुआ और खेत की ओर चल दिया। पानी का बहाव तेज था। आरुणि ने मिट्टी जमाने की कोशिश की पर बहाव रुका नहीं। कोई उपाय न देख आरुणि उस स्थान पर लेट गया। इस प्रकार उसने पानी को रोक दिया मगर बहाव और वर्षा के वेग से वह बेहोश हो गया। बहुत रात बीत जाने पर भी जब वह न लौटा तो धौम्य को चिंता हुई। वह खेत पर उसे ढूंढने पहुंचे। देखा तो आरुणि पानी को रोके मेड़ के पास लेटा था। देखते ही गुरुजी भावविभोर हो गए।
आरुणि के विचार

आरुणि के अध्यात्म विचारों का विस्तृत विवेचन छांदोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषदों में बड़े रोचक ढंग से किया गया है। तत्ववेत्ताओं के इतिहास में आरुणि का पद याज्ञवल्क्य के ही समकक्ष माना जाता है जो इनके शिष्य होने के अतिरिक्त उपनिषत्कालीन दार्शनिकों में नि:संशय सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक तथ्यों के विषय में आरुणि की मान्यता है कि निद्रा का मुख्य हेतु 'श्रम' है और निद्रा की दशा में जीव आत्मा के साथ ऐक्य धारण कर लेता है (छांदोग्य ६.८.१)। मृत्युकालीन चेतना के विषय में आरुणि का कथन है कि जब मनुष्य मरता है, तब उसकी वाक्मन में अंतर्लीन हो जाती है; अनंतर मन प्राण में, प्राण तेज में तथा अंत में तेज देवता में अंतर्लीन हो जाता है (छां. ६.१५)। इस सिद्धांत को याज्ञवल्क्य ने यहीं से ग्रहण कर विस्तार से प्रतिपादित किया है।
तत्वज्ञान के विषय में आरुणि के सिद्धांत को हम 'प्रत्ययवादी' अद्धैत का नाम दे सकते हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में अद्वैत ही एकमात्र सत् तथा तथ्य है। आरुणि के सिद्धांत का शंखनाद है तत्वमसि वाक्य जिसे इन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु को अनेक मनोरंजक दृष्टांत के द्वारा समझाया तथा प्रमाणित किया। 'इदं सर्व तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो'-आरुणि के अद्वैतवाद का यह महनीय मंत्र है (छां. ६.११,१२)। मूल तत्व 'सत्' रूप है, असद्रूप नहीं, क्योंकि असत् से किसी भी प्रकार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यह सत् अपने में से पहले अग्नि को, पीछे जल को तथा अंत में पृथ्वी को इसी क्रम से उत्पन्न करता है। सृष्टि का यह 'त्रिवृत्करण' तत्व आरुणि का स्वोपज्ञ सिद्धांत है। विश्व के प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों तत्व विद्यमान रहते हैं। सब पदार्थ असत् हैं। पदार्थों अपेक्षा तत्वों (पृथ्वी, जल, तेज) की सत्यता सर्वथा मान्य है और इन तत्वों की अपेक्षा सत्यतर है वह सत् जो इनका मूल कारण है (छां. ६.३-४)। यह सत् विश्व के समस्त प्रपंचों में अनुस्यूत तथा आधारस्थानीय सूक्ष्म तत्व है (छां ६.१२)।
इसका पूर्ण ज्ञान आचार्य के द्वारा दी गई शिक्षा के द्वारा और श्रद्धा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है; आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है। आत्मा विश्व के प्रत्येक पदार्थ में उसी प्रकार व्याप्त रहता है, जिस प्रकार उस जल के प्रत्येक कण में लवण व्याप्त रहता है जिसमें वह डाला जाता है (छां. ६.१३)। उद्दालक आरुणि का यह अध्यात्मदर्शन आत्मा की अद्वैतता तथा व्यापकता का पूर्ण परिचायक है।

हिंदुत्व

This is developed by the magazine HINDUISM TODAY. Worth seeing and understanding - young and old alike.

HISTORY OF HINDU INDIA

PART 1

https://www.youtube.com/watch?v=dBZRTzXARWM

PART 2

https://www.youtube.com/watch?v=j0kLX2aPgo8

PART 3

https://www.youtube.com/watch?v=Lr8Qx0SyrYI

PART 4

https://www.youtube.com/watch?v=8A36RSQEb_Q

PART 5

https://www.youtube.com/watch?v=eVnqJHO3PcY

वट सावित्री व्रत की पूर्व संध्या पर विशेष

पति की दीर्घायु हेतु वट वृक्ष की पूजा

वट सावित्री व्रत का पूजन मंगलवार 15 मई को विधि-विधान से होगा।  इस दिन सुहागिनें 16 श्रृंगार करके बरगद के पेड़ की पूजा कर फेरें लगाती हैं ताकि उनके पति दीर्घायु हों । प्यार, श्रद्धा और समर्पण का यह भाव इस देश में सच्चे और पवित्र प्रेम की कहानी कहता है।
वट वृक्ष बरगद को जल चढ़ाना केवल एक प्रथा नहीं बल्कि सुख शांति तरक्की का माध्यम है...
आपको बता दें कि ऐसी मान्यता है कि इसी दिन देवी सावित्री ने यमराज के फंदे से अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी। सनातन परंपरा में वट सावित्री पूजा स्त्रियों का महत्वपूर्ण पर्व है, जिसे करने से हमेशा अखंड सौभाग्यवती रहने का आशीष प्राप्त होता है।
कथाओं में उल्लेख है कि जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे तब सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने सावित्री को ऐसा करने से रोकने के लिए तीन वरदान दिये। एक वरदान में सावित्री ने मांगा कि वह सौ पुत्रों की माता बने। यमराज ने ऐसा ही होगा कह दिया। इसके बाद सावित्री ने यमराज से कहा कि मैं पतिव्रता स्त्री हूं और बिना पति के संतान कैसे संभव है।
सावित्री की बात सुनकर यमराज को अपनी भूल समझ में आ गयी कि,वह गलती से सत्यवान के प्राण वापस करने का वरदान दे चुके हैं।

जब सावित्री पति के प्राण को यमराज के फंदे से छुड़ाने के लिए यमराज के पीछे जा रही थी उस समय वट वृक्ष ने सत्यवान के शव की देख-रेख की थी। पति के प्राण लेकर वापस लौटने पर सावित्री ने वट वृक्ष का आभार व्यक्त करने के लिए उसकी परिक्रमा की इसलिए वट सावित्री व्रत में वृक्ष की परिक्रमा का भी नियम है।
सुहागन स्त्रियां वट सावित्री व्रत के दिन सोलह श्रृंगार करके सिंदूर, रोली, फूल, अक्षत, चना, आम फल और मिठाई से वट वृक्ष की पूजा कर सावित्री, सत्यवान और यमराज की कथा श्रवण कर पूजा करें। ब्राह्मण देव को दक्षिणा आदि सामग्री दान करें।
वट वृक्ष की जड़ को दूध और जल से सींचें। इसके बाद कच्चे सूत को हल्दी में रंगकर वट वृक्ष में लपेटते हुए कम से कम तीन बार, 5 बार, 8 बार, 11 बार, 21 बार, 51, 108 जितनी परिक्रमा कर सके करें। पूजा के बाद वटवृक्ष से सावित्री और यमराज से पति की लंबी आयु एवं संतान हेतु प्रार्थना करें।
बरगद की पूजा जरूर करें.....
   **************
ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या तिथि के दिन वटवृक्ष की पूजा का विधान है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन
वटवृक्ष की पूजा से सौभाग्य एवं स्थायी धन और
          सुख-शांति की प्राप्ति होती है।
बरगद के पेड़ को वट का वृक्ष कहा जाता है।
पुराणों में यह स्पष्ट लिखा गया है कि वटवृक्ष की
जड़ों में ब्रह्माजी, तने में विष्णुजी और डालियों
एवं पत्तों में शिव का वास है। इसके नीचे बैठकर
पूजन, व्रत कथा कहने और सुनने से मनोकामना पूरी होती है।
हिन्दू धर्मानुसार 5 वटवृक्षों का महत्व अधिक है
***********************
अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट
इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता। संसार में उक्त 5 वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है।
प्रयाग में अक्षयवट,
नासिक में पंचवट,
वृंदावन में वंशीवट,
गया में गयावट
         और
उज्जैन में पवित्र सिद्धवट है।
जहाँ प्रत्येक चौदस अमावस्या
के पहले वाली तिथि को पित्रो को
दूध अर्पित किया जाता है।
मानस से-
तहं पुनि संभु समुझिपन आसन।
  बैठे वटतर, करि कमलासन।।
भावार्थ- अर्थात कई सगुण साधकों, ऋषियों यहां तक
कि देवताओं ने भी वटवृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं।

वट और पीपल के वृक्ष पहले बहुत लगाये जाते थे, ये धर्म से जुड़ा हुआ वृक्ष है, लेकिन आज वर्तमान के लिए यह वृक्ष अति आवश्यक है। क्या आप जानते हैं कि वर्तमान में पड़ रहे सूखे, अत्यधिक गर्मी और प्रदूषण की वजह क्या है ?
बरगद और पीपल के वृक्षों की कमी होना।
.विकास के नाम पर इस प्रकार के बड़े पेड़ों को काटना, इनके नए पेड़ नहीं लगाना, इन पेड़ों के संरक्षण, संवर्धन में कमी।।
आप को लगेगा अजीब बकवास है किन्तु यही अटल सत्य है.. .।
पीपल, बरगद और नीम के पेडों को सरकारी स्तर पर लगाना बन्द कर दिया गया है।
पीपल कार्बन डाई ऑक्साइड को 100% सोख लेता है, बरगद़ 80% और नीम 75 %
हमने इन पेड़ों से दूरी बना लिया तथा इसके बदले यूकेलिप्टस को लगाना शुरू कर दिया जो जमीन को जल विहीन कर देता है।
.
अब जब वायुमण्डल में रिफ्रेशर ही नही रहेगा तो गर्मी तो बढ़ेगी ही और जब गर्मी बढ़ेगी तो जल भाप बनकर उड़ेगा ही ।
हर 500 मीटर की दूरी पर एक बरगद का, पीपल का पेड़ लगाये तो आने वाले कुछ साल भर बाद प्रदूषण मुक्त हिन्दुस्तान होगा।
वैसे आपको एक और जानकारी दे दी जाए, बरगद और पीपल के पत्ते का फलक अधिक और डंठल पतला होता है जिसकी वजह से शांत मौसम में भी पत्ते हिलते रहते हैं और स्वच्छ ऑक्सीजन देते रहते हैं। वैसे भी बरगद और पीपल को वृक्षों का राजा कहते है।
इसकी वंदना में एक श्लोक देखिए-
मूलम् ब्रह्मा, त्वचा विष्णु,सखा शंकरमेवच।
पत्रे-पत्रेका सर्वदेवानाम,वृक्षराज नमस्तुते।
भावार्थ तो समझ ही गए होंगे।
अब करने योग्य कार्य
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इन जीवनदायी पेड़ों को ज्यादा से ज्यादा लगायें तथा यूकेलिप्टस पर बैन लगाया जाये इसके साथ नीम और आम के पौधे भी लगाएं । हर शहरों में ऐसा नियम बनाया जाये की हर घर के आसपास पेड़ जरूर लगाना है, जैसे वाटर हार्वेस्टिंग को जरूरी नियम बनाया गया है वैसे ही हर घर में वृक्ष का नियम भी होना चाहिए।
जिसके घर में ये बड़े पेड़ लगाने की जग़ह न हो वह तुलसी जी का पौधा जरूर लगाये*
आइये हम सब मिलकर अपने "हिंदुस्तान" को प्राकृतिक आपदाओं से बचायें, सूखे से बचायें, अत्यधिक गर्मी से बचायें।। 
        ✍☘

Sunday, May 13, 2018

संस्कृत

संस्कृत

संस्कृतम् जगतः अतिप्राचीना समृद्धा शास्त्रीया च भाषा वर्तते। संस्कृतम् भारतस्य जगत: च भाषासु प्राचीनतमा। संस्कृता वाक्, भारती, सुरभारती, अमरभारती, अमरवाणी, सुरवाणी, गीर्वाणवाणी, गीर्वाणी, देववाणी, देवभाषा, दैवीवाक्‌ इत्यादिभिः नामभिः एतद्भाषा प्रसिद्धा।

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भारतीयभाषासु बाहुल्येन संस्कृतशब्दाः उपयुक्ताः। संस्कृतात् एव अधिका भारतीयभाषा उद्भूताः। तावदेव भारत-युरोपीय-भाषावर्गीयाः अनेकाः भाषाः संस्कृतप्रभावं संस्कृतशब्दप्राचुर्यं च प्रदर्शयन्ति।


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व्याकरणेन सुसंस्कृता भाषा जनानां संस्कारप्रदायिनी भवति। अष्‍टाध्‍यायी इति नाम्नि महर्षिपाणिनेः विरचना जगतः सर्वासां भाषाणाम् व्याकरणग्रन्थेषु अन्यतमा, वैयाकरणानां भाषाविदां भाषाविज्ञानिनां च प्रेरणास्‍थानं इवास्ति।


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संस्कृतवाङ्मयं विश्ववाङ्मये स्वस्य अद्वितीयं स्थानम् अलङ्करोति। संस्‍कृतस्‍य प्राचीनतमग्रन्‍थाः वेदाः सन्‍ति। वेद-शास्त्र-पुराण-इतिहास-काव्य-नाटक-दर्शनादिभिः अनन्तवाङ्मयरूपेण विलसन्ती अस्ति एषा देववाक्। न केवलं धर्म-अर्थ-काम-मोक्षात्मकाः चतुर्विधपुरुषार्थहेतुभूताः विषयाः अस्याः साहित्यस्य शोभां वर्धयन्ति अपितु धार्मिक-नैतिक-आध्यात्मिक-लौकिक-पारलौकिकविषयैः अपि सुसम्पन्ना इयं दववाणी।

संस्कृत से ही संस्कृति

संस्कृत से ही संस्कृति 

(राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी का एक भाषण)

                   मेरा विश्वास है कि कोई भी विचारशील व्यक्ति इस बात से इन्कार नहीं करेगा कि-कोई जाति या राष्ट्र तब तक सफलता से आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक उसे अपनी ऐतिहासिक चेतना का, अपनी मानसिक प्रवृत्तियों, शक्ति और साधनों का यथावत् ज्ञान न हो, क्योंकि ऐसी जाति के व्यक्तियों में किसी भी कार्यक्रम के हुए वह मतैक्य और वह उत्साह नहीं हो सकता जो अब होता है, जब जातीय चेतना के मनोनुकूल और कोई कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है। जातीय चेतना से सर्वथा अनभिज्ञ जननायक, जन-शक्ति को प्रगति के लिए प्रयोग में लाने में वैसे ही असमर्थ होगा, जैसे कि जलशास्त्र से सर्वथा अपरिचित कोई व्यक्ति नदी को बाँधकर उसे रचनात्मक कार्यों के लिए प्रयोग करने में असमर्थ होता है।

                  महात्मा गाँधीजी ने इस सत्य को खूब पहचाना था और उन्होंने भारत में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति का जो कार्यक्रम बनाया था, वह हमारी ऐतिहासिक जातीय चेतना के ठीक ठीक ज्ञान पर ही आश्रित था और इसी हेतु उस कार्यक्रम को यहाँ की साधारण जनता का सहज में ही उत्साहप्रद समर्थन और सहयोग मिल गया था। अतः मेरा यह आग्रह है कि भारत के सुन्दर भविष्य के लिए, उसकी आर्थिक और साँस्कृतिक प्रगति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हम अपनी जातीय चेतना को पहचानने का यथोचित प्रबन्ध करें। इस प्रबन्ध का एक प्रमुख अँग संस्कृत अध्ययन के लिए प्रबन्ध करना है, क्योंकि संस्कृत में ही तो अधिकतर वह सामग्री है जिसके आधार पर हम अपने जातीय स्वरूप को यथावत् पहचान और जान सकते हैं।

दान की नदी

                    उन्होंने कहा—मुझे इस बात का खेद है कि इस दिशा में जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, जितना धन, समय और शक्ति लगनी चाहिए, वैसी न तो व्यवस्था है और न उतना धन, समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय था जब राज्य और समाज दोनों ही संस्कृत के अध्ययन का पोषण करते थे। राज-दरबार में संस्कृत के पण्डितों और कवियों का बड़ा आदर सम्मान होता था और राजा तथा सामन्तगण उन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए पर्याप्त धेनु, धन और धान्य देते थे। समाज के कार्य से भी संस्कृत का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध था कि वह कोई महत्वपूर्ण कदम उसकी सहायता के बिना उठा ही न सकता था। अतः दान की नदी समाज स्रोत से निकलकर सर्वदा ही संस्कृत पंडितों और आचार्यों का आर्थिक जीवन उर्वर बनाती रहती थी। उस युग में संस्कृत विद्वानों ने जीवन के हर क्षेत्र में अनिर्वचनीय कार्य किया। विज्ञान, कला, साहित्य इन सबका ही भंडार उन्होंने अपने परिश्रम और प्रज्ञा से भरा। यह कहना अनुचित न होगा कि इन संस्कृत विद्वानों ने भारत को वह ज्ञान और शील-निधि प्रदान की, जो आज भी जगत् भर के लोगों को आश्चर्यचकित कर रही है। किन्तु युग बदला और राज्य का परिश्रय संस्कृत के विद्वानों को न रहा। फिर भी यदि संस्कृत अध्ययन जारी रहा, फिर भी यदि संस्कृत के पंडित भारतीय साहित्य, दर्शन और कला के कोष को समृद्ध करते रहे तो वह इसी बल पर कि समाज से आने वाली दान सरिता तब भी पर्याप्त चौड़ी और गहरी थी और उसके धन-जल से इन पण्डितों का जीवन सिंचता रहता था। किन्तु अभी लगभग दो शताब्दियों पूर्व से समाज की यह दान-सरिता भी कुछ सूखने सी लगी है।
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भारत का प्रकाश-स्तम्भ बदला

                   अँग्रेजी राज्यकाल में शिक्षा की कुछ ऐसी व्यवस्था हुई कि हमारे देश में यह भावना घर करने लगी कि हमारी अपनी ऐतिहासिक परम्पराऐं, संस्कार, रीति रिवाज सब व्यर्थ और हानिकारक हैं और इसलिए उनको छोड़कर विदेशी सभ्यता को अपनाने में ही हमारा कल्याण है। अतः शनैः शनैः संस्कृत विद्वानों और आचार्यों के आर्थिक साधन कम होते गए हैं और वे दरिद्रता के भंवर में डूबते गए हैं। जिस निधि के वे संरक्षक और फैलाने वाले थे, जब उसी के प्रति लोगों के मन में उपेक्षा होने लगी, तो भला यह कैसे हो सकता था कि उन विद्वानों और आचार्यों के प्रति लोगों की आदर-भावना बनी रहे। अतः जो लोग समाज के शिरमौर माने जाते थे, जिन्हें सब लोग पूज्य समझते थे, वे ही समाज में सबसे उपेक्षणीय और परिहास के पात्र समझे जाने लगे। समाज में उन आचार्यों का स्थान लिया अँग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति के पंडितों ने और भारत का प्रकाश स्तम्भ और सूर्य बन गया इंग्लैंड। 

                     इस परिवर्तन का ज्वलन्त उदाहरण यही है कि इस युग में देश की आँखें काशी की ओर न रह कर कलकत्ते की ओर लग गईं। किन्तु इस उपेक्षा और उपहास के युग में भी संस्कृत बनी रही और संस्कृत के विद्वान बने रहे। यह इसीलिए सम्भव हुआ क्योंकि संस्कृत और संस्कृत के विद्वानों ने कभी लक्ष्मी की दासता स्वीकार न की थी। सहस्राब्दियों पूर्व उनके गुरुओं ने यह परम्परा चला दी थी कि सरस्वती के उपासक का धन-धान्य और सम्मान-आदर का मोह न करना चाहिए। उनका तो यह आग्रह था कि चाहे नीति-चतुर प्रशंसा करें अथवा निन्दा, चाहे धन मिले या जाए, धीर लोग धर्मपथ से विचलित नहीं होते। अतः हर प्रकार की उपेक्षा, हर प्रकार की आर्थिक विपत्ति सहकर भी हमारे पंडितों ने संस्कृत को जीवित रखा और उसके भण्डार को भरते रहे।

स्वतन्त्र भारत में भी भय

                    किन्तु अपने धर्म-निर्वहन के साथ-साथ उनके मन में यह विश्वास भी था कि कभी-न-कभी जमाना करवट बदलेगा और इस देश के, इसकी जनता के, इसके पंडितों और आचार्यों के भाग्य फिर जगेंगे। मैं नहीं कह सकता कि स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने इस विश्वास, इस स्वप्न, इन आशाओं की पूर्ति की झलक देखी है या नहीं, किन्तु मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है कि संभवतः स्वतंत्र भारत में संस्कृत अध्ययन की यह परम्परा कहीं समाप्त न हो जाये।
आज संस्कृत विद्वानों की जो अवस्था है वह वास्तव में शोचनीय है। अभी राज्य ने संस्कृत अध्ययन को परिश्रय देने का भार अपने सिर पर नहीं लिया है। यह ठीक है कि विद्यालयों में संस्कृत अध्ययन के लिये कुछ प्रबन्ध है, किन्तु वह ऐसा नहीं है, जिसे गिनती में लिया जा सके। संस्कृत की जो पाठशालायें और विद्यालय आज तक चल रहे हैं और जिनके द्वारा ही संस्कृत-अध्ययन की परम्परा अब तक बनी रही है, उनकी अवस्था आजकल शोचनीय होती जा रही है। वहाँ से निकले विद्यार्थियों का हमारे आधुनिक जीवन में लगभग न कुछ के बराबर स्थान है और फल यह है कि आज संस्कृत के आचार्य नौकरी करने को तैयार मिलते हैं और फिर भी उनको नौकरी नहीं मिलती।

अश्रद्धा का प्रमाण

                संस्कृत विद्या और संस्कृत पठन-पाठन के प्रति हमारी उदासीनता और तज्जनित आर्थिक कठिनाइयों का और उन लोगों में भी जो आज तक हजार कष्ट सह कर और हमारे प्राचीन अदत्त आदर्शों से प्रभावित होकर संस्कृत अध्ययन-अध्यापन में पीढ़ियों से लगे हुये थे, उनके प्रति अश्रद्धा का दूसरा क्या प्रमाण हो सकता है कि काशी जैसे एक पीठ-स्थान में भी कितने ही आचार्यों के वंशज आज उस पैतृक विद्या का आश्रय छोड़कर आधुनिक शिक्षा ग्रहण करके ऊँची तनख्वाह वाली नौकरियाँ ले रहे हैं। इसलिये हमें जहाँ एक ओर संस्कृत को जीविकोपयोगी विद्या बनाना है वहाँ इसे भी भूलना नहीं कि उसको आज तक जीवित रखने वाले वही धन्य पुरुष हुए हैं जो इसे केवल अर्थोपार्जन का साधन नहीं मानते थे। समाज को भी अपनी ऐसी भूमिका बनानी है जिसमें मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा-संस्कार सभी लक्ष्मी के ही अनुगामी न बनकर सरस्वती के लिये सुरक्षित रहें और लक्ष्मी के लिए धन-जनित शान-शौकत और लाभ कार्य छोड़े रखा जाये | अतः हम सबको इस बात पर बड़े धैर्य से विचार करना है कि हम क्या उपाय करें, जिनसे संस्कृत का अध्ययन घटने के बजाय देश में और अधिक प्रसृत हो। सर्व-प्रथम तो हमारे सामने यह प्रश्न है कि भविष्य में संस्कृत पाठशालाओं और विद्यालयों के लिए वित्त का कैसे प्रबन्ध हो। अब तक जो इन पाठशालाओं को दानशील रियासतों, जमींदारों और सेठ, साहूकारों से आवश्यक वेत्तिक सहायता मिल जाया करती थी। कुछ तो उनके लिए दान की गई जमींदारियों की आय के सहारे चल रही थीं, किन्तु अब तो जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन का हमने फैसला कर लिया है। अतः इन पाठशालाओं का वह वैत्तिक स्रोत तो शीघ्र ही सूख जायगा। सेठ, साहूकारों से भी मिलने वाली सहायता का भी कुछ ज्यादा दिन के लिये भरोसा नहीं है।

                  सच तो यह है कि आज राज्य ने इतने अधिक मात्रा में सामाजिक सूत्र अपने हाथ में ले लिये हैं कि यदि राज्य ने संस्कृत अध्ययन के वित्तभार को अपने कन्धे पर न लिया तो वह संभवतः आगे न चल सकेगा। उस दिशा में राज्य सरकारें पहला काम कर सकती हैं। अब समय आ गया है कि वे संस्कृत अध्ययन के लिये आवश्यक वैत्तिक प्रबन्ध करें। जब समाज के सब सम्पत्ति-साधनों को वे अपने हाथों में ले रहीं है तो कोई कारण नहीं है कि वे समाज के उत्तरदायित्वों को अपने सिर पर क्यों न लें। मेरा विचार है कि भारत की राज्य सरकारों का अब यह धर्म है कि वे अपने कोष से संस्कृत अध्ययन के लिये पर्याप्त सहायता देना आरंभ करें।

                  साथ ही यहाँ उद्योगपतियों को भी अपना यह धर्म मानना चाहिए कि अपने दान का एक अंश विश्व-विद्यालयों में संस्कृत अध्ययन के लिए विशिष्ट पीठियों की स्थापना के लिए लगायें। इंग्लैंड और अमरीका में वहाँ की भाषाओं के प्रमुख कलाकारों और साहित्यिकों की कृतियों और जीवन के अध्ययन के लिए वहाँ के धनिकों ने वहाँ के विश्वविद्यालयों में विशिष्ट पीठियों की स्थापना के लिए पर्याप्त दान दिया है। मैं समझता हूँ कि हमारे यहाँ के धनिक वर्ग को भी ऐसा ही करना चाहिए।सहस्राब्दियों से संस्कृत का आधार-तल और पृष्ठभूमि वह अध्यात्मवाद रहा है जो भारत की मानवता की देन है। सहस्राब्दियां व्यतीत हो गई जब भारत में प्रथम बार इस विश्वास का जन्म हुआ कि इस जगत् की हर प्रकार की विपत्ति, बाधाओं, कमियों और कठिनाइयों से मानव तब तक मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि उसका जीवन सत्य की उपासना, सेवा का अटल व्रत और न्याय की अविचल निष्ठा नहीं बन जाता।

                  इन आदर्श को कृष्णार्पण का नाम दिया अर्थात् व्यक्ति जो कुछ भी करे वह उस श्रद्धा से और इच्छा से करे कि वह यह समस्त विश्व और उससे भी परे विश्वात्मा की प्रसन्नता के लिए कर रहा है, केवल अपनी इन्द्रियों के सन्तोष के लिये नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि व्यक्ति अपने साँसारिक कर्तव्यों को परित्याग करके किसी जंगल में जा बैठे। इसका केवल यही अर्थ था कि वह अपना कोई भी साँसारिक काम अपनी स्वार्थ बुद्धि से न करे वरन् इस विचार से करे कि यही विश्वात्मा की इच्छा के अनुकूल है और वैसा ही करके वह अपने अहं की कैद से छूटकर अपने सच्चे विश्व स्वरूप को पहचान सकता है। इसी आदर्श को हमारे कवियों ने अपने काव्यों में बुना है, हमारे साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में दर्शाया है। पुराण इसी का गुणगान करते हैं और दर्शन भी इसी से प्रभावित हैं। वास्तव में यह कहना अनुचित न होगा कि यह आदर्श हमारी जातीय अनुभूति के ताने बाने में बुना हुआ है। सम्पूर्ण संस्कृत वांग्मय का प्राण और प्रेरणा यही आदर्श है। संस्कृत नाटक, संस्कृत आख्यान और कथायें संस्कृत महाकाव्य, संस्कृत शास्त्र, संस्कृत विज्ञान सर्वत्र ही इसका साम्राज्य है। अतः यह स्पष्ट है कि संस्कृत साहित्य का विद्यार्थी इस आदर्श से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। मेरा विचार है कि जगत् को हम जो सबसे बड़ी देन दे सकते हैं, वह यही आदर्श है और यह देन हम तब ही दे पायेंगे जब न केवल हमारी भूमि और हमारे औद्योगिक यंत्र विशाल धन धान्य की सरिता के ही स्रोत बन गये होंगे, वरन् उनमें कार्य करने वाले श्रमिक और कृषक भी इसी आदर्श से प्रेरित होंगे। उस स्वर्णिम युग की स्थापना के लिए हमें अनर्थक परिश्रम करना है और अनेक प्रकार के आयोजन करने हैं। किंतु इन सब प्रयासों और आयोजनों की महत्त्वपूर्ण शर्त यह है कि शिल्पिक-शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा की खाई पट जाये। संस्कृत वह सेतु है जो इस खाई को पाटता है और इसी दृष्टि से आधुनिक जगत् में उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।